गुरुवार, 26 जुलाई 2007

प्रात:काल की बेला

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प्रात:काल की बेला
वर्षा के मौसम में
रिमझिम होती फुहार
शीतल पवन का स्पर्श
एक ऐसे आनन्द की
अनुभूति का आनद कराता है
जी शब्दों में व्यक्त करना
सहज नहीं कोई पाता है
न गद्य और पद्य में
न गीत से न संगीत से
न श्रवण न न अध्ययन
यह एक अनुभूति है जिसे
वह कर पाते हैं
जो समय पर जाग जाते हैं
देर से जागने पर
संसार स्वत: ही नरक सा लगता है
जो जागते है उन्हें
भोर का हर एक -एक पल
परमानंद का अनुभव कराता है

बुधवार, 25 जुलाई 2007

कौन देगा चैन

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कौन देगा चैन
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कौन ढूँढें और कहाँ सुख का चैन
जो दिल की शांति बेचते हैं
अपने-अपने रंग के चोले ओढ़कर
दौलत और शौहरत के लिए
घूम रहे हैं बेचैन
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बेरोजगार
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कुछ पढ़ लिख गया
तो अब हो गया बेरोजगार
कहीं इधर-उधर ढूँढता नौकरी
अपनी शिक्षा की उपाधि से
कोई वास्ता नहीं रहा
पहले वेतन का है उसे इन्तजार
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बजवाते ताली
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पूंजीपति को देते हैं गाली
खुद की जेब भी है खाली
रोटी का सपना दिखाकर
बजवाते लोगों से ताली
लड़ते-झगड़ते अपनी रोटी तो
सेंक जाते हैं पर उनके भर के
बरतन भी रहते हैं खाली
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मंगलवार, 24 जुलाई 2007

गिद्ध और सिद्ध

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पिछले कई दिनों से अपरिहार्य कारणों से लिख नहीं पा रहा था , और अब प्रयास करूंगा कि इस पर एक रचना रोज दूं । आज चार क्षणिकाएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ
मस्तराम

गिद्ध और सिद्ध
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अब गिद्ध करने लगें हैं
सिद्धों जैसी बात
इतनी चालाकी से करें कि
सिद्ध भी हो जाएँ मात


चालाकी और सिद्धि
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चालाकी को कहते लोग सिद्धि
मुर्खता को मानते अभिनय
बेईमानी को बताते कला
ऐसे में गिद्ध ही पूजते चारों तरफ
सिद्धो को कौन पूछता भला


वाचाल
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वाचाल इतने कि बोलें तो
लोग जाते हैं सहम
और करते हैं उनकी स्तुति
शांतिप्रिय लोग सोचते हैं
कुछ देर इनको झेल लो
किसलिये झगडा मोल लो
थोडी देर में मिल जायेगी
अपने आप मुक्ति

निडरता
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उनका शासन इसलिये चलता है
क्योंकि लोग डरे रहते हैं
निडर लोगों से दादा भी कन्नी
काटते हमने देखे हैं
डरने वाले को डराते
निडर को सलाम करते हैं
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सोमवार, 2 जुलाई 2007

बोए पेड बबूल का

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दुसरे के रास्ते में
बबूल बोकर यूं
खुश हो जाते हैं
जैसे चंदन के पेड
लगा दिया हो
जब उस पर
अनजाने में गुजरते हुए
लगते हैं उनके पाँव में
तब कांटो को कोसते हैं
खुद बोया था यह नही सोचते हैं
ऐसा लगता है जैसे अपनी
याददाश्त को खो दिया हो
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बोए पेड बबूल का
आम कहाँ से होय
फिर भे नहीं लगाएँगे आम
हम खाए या नहीं पर
खा सके न और कोय
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