बुधवार, 16 मई 2007

भरोसे के जो तार टूट गये हैं

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कभी-कभी मन मेरा
उन गलियों में
भटकने के लिए तरसता है
जहां से तेरे घर का रस्ता है
चल पड़ता हूँ उस ओर
फिर बढ़ते क़दमों को थाम लेता हूँ
यह सोचकर कि
भरोसे के जो तार टूट गए हैं
उनसे अब क्या रिश्ता है
जब-जब तेरी याद आती है
तब उसे भुलाने की कोशिश
करने के लिए होती है जंग
मेरे इस उदास मन में
जिसमे मन ही मेरा पिसता है

2 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

अच्छी अभिव्यक्ति है किन्तु इतनी निराशा क्यूँ ?

"भरोसे के जो तार टूट गए हैं
उनसे अब क्या रिश्ता है"

सुनीता शानू ने कहा…

वाह क्या सुंदर अभिव्यक्ति है,..
कभी-कभी मन मेरा
उन गलियों में
भटकने के लिए तरसता है
जहां से तेरे घर का रस्ता है
चल पड़ता हूँ उस ओर
फिर बढ़ते क़दमों को थाम लेता हूँ

बहुत सुंदर!
सुनीता(शानू)