घर बसते और सजते हैं
पर फिर भी रिश्तों की खुशबू से
क्यों नहीं महकते हैं
अपने लिए ही जी रहा है हर कोई
दूसरे के दर्द का किसी को नहीं होता अहसास
छत पर नहीं डालते दाना
फिर भी भूखे ही पक्षी चहकते हैं
करते हैं सब लोग एक दूसरे के
वफादार होने की कोशिश
मौका पड़ने पड़ने पर
नदारत रहते हैं
अब कोई नकाब नहीं लगाता चेहरे पर
अदाओं से ही सभी अभिनय करते हैं
अपने अकेलेपन को सब जानते हुए भी
लोग दिलाते हैं यकीन सहारे का खुद
दूसरों से उम्मीद के वहम भी अच्छी लगते हैं
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हमने रात को तकिया रखकर सोना छोड़ दिया है
दूसरों के भरोसे से मुहँ मोड़ लिया है
वफ़ा और धोखे के हिसाब कौन रखे
अपने दिल की बहियों से नाता तोड़ लिया है
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ऐसे में कहां जायेंगे यार-हिंदी शायरी
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*कहीं जाति तो कहीं धर्म के झगड़ेकहीं भाषा तो कहीं क्षेत्र पर होते लफड़ेअपने
हृदय में इच्छाओं और कल्पनाओं काबोझ उठाये ढोता आदमी ने...
16 वर्ष पहले
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