घर का बजट में ही
इतना उलझ जाते हैं
किसी और के बजट पर
सोच ही कहाँ पाते हैं
दाल, गेहूँ ,चावल, नमक और शक्कर
इनके इर्द-गिर्द ही चलता है अपना चक्कर
रेल में तो कभी कभार जाते हैं
घर के खेल में उलझे होते हैं ऐसे कि
देश के अर्थ के बजट से कभी अपने अर्थ
जोड़ने की तो फुरसत ही कहाँ पाते हैं
अपना बजट तो होता है
कड़वा सत्य पा आधारित
आंकडों से सजे बजट
हम समझ कहाँ पाते हैं
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ऐसे में कहां जायेंगे यार-हिंदी शायरी
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*कहीं जाति तो कहीं धर्म के झगड़ेकहीं भाषा तो कहीं क्षेत्र पर होते लफड़ेअपने
हृदय में इच्छाओं और कल्पनाओं काबोझ उठाये ढोता आदमी ने...
16 वर्ष पहले
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